भूतकाल की चिंता छोड़कर भविष्य को अपनाएं अतीत की सोच से बाहर निकलें। safalta ke liye bhavishy me jeena seekhe। success story।
Learn to live in the future for success: Success Story।
जीवन के दो काल।
जीवन में दो काल होते है भूतकाल और भविष्य काल। इस लिहाज से वर्तमान बहुत ही संक्षिप्त होता है, एक तेजी से गुजरा हुआ पल। आपके पास दो विकल्प होते हैं, या तो आप गुजरे हुए कल पर ध्यान दे सकते हैं, जिसे आप बदल नहीं सकते। या फिर भविष्य पर जिस पर कि आपका कुछ तो नियंत्रण होता है।
कई लोग अपनी भावनात्मक ऊर्जा का अधिकांश भाग गुजरे हुए वक्त की घटनाओं को लेकर विचलित या नाराज होने पर ही बर्बाद कर देते हैं।
उनकी यह ऊर्जा तो पूरी तरह से ही बेकार चली ही जाती है। और बीते हुए वक्त की पूरे समय आलोचना करके कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता। इससे भी ज्यादा चिंता की बात तो यह है, कि भूतकाल को याद करने से पैदा हुई नकारात्मक भावनाएं आपको भविष्य में छपी संभावनाओं को लेकर उत्साहित या आनंदित होने से भी वंचित कर देती हैं।
अगर ऐसा हुआ होता तो” को निकाल फेकें।
दुखी लोगों के साथ 25 वर्ष से भी ज्यादा काम कर चुके एक मनोवैज्ञानिक ने लिखा है। कि इन लोगों के साथ रहते हुए उन्होंने यही सब सबसे ज्यादा सुना, “अगर ऐसा हुआ होता तो।”
ऐसा देखने को मिलता है। कि जिंदगी से दुखी अधिकांश लोगों के लिए गुजरे वक्त का कोई भी ना बुलाया जा सकने वाला वाक्य ही सोच का आधार बनकर रह जाता है। किसी के द्वारा कहे गए, किए गए या ना कहे गए या न किए गए काम या शब्द के लिए उनमें कटुता, नाराजगी या हताशा का भाव घर कर जाता है।
वह अपने माता-पिता में से किसी एक या दोनों से, भाई-बहन किसी पुराने रिश्ते या शादी से, अपने बॉस या कारोबार, नाकाम निवेश या फिर किसी गलत आर्थिक काम को लेकर नाराज रहते हैं।
आपको यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि आपकी जिंदगी समस्याओं, परेशानियों, बाधाओं और अस्थाई असफलताओं की अनवरत कड़ी ही रहेगी। यह अनजानी और अनचाही नाकामियां और निराशाएं तो विकास प्रक्रिया की सामान्य, प्राकृतिक और न टाली जा सकने वाली सच्चाई है।
अपनी सोच और अपनी जिंदगी को बदलने के लिए आपको एक फैसला लेना ही होगा। और अपनी जिंदगी को आगे बढ़ाना होगा। फिर चाहे जो हो जाए जब तक आप ऐसा नहीं करेंगे आप इस भूतकाल के गुलाम बने रहेंगे जिसे आप बदल नहीं सकते। आज ही फैसला करें इसी वक्त से आप अपनी जिंदगी से “अगर ऐसा हुआ होता तो” को निकाल फेकेंगे।
घटनाओं के प्रति नजरिया बदलें।
पेशे से लेखक और वक्ता वेन डायर का कहना है, एक सुखी बचपन को तो कभी भी हासिल किया जा सकता है। उनके कहने का मतलब केवल इतना ही है, कि आप किसी भी वक्त अपनी जिंदगी की नाखुश कर देने वाली घटनाओं को सकारात्मक नजरिए से देख सकते हैं।
आप प्रतिस्थापन के नियम का अभ्यास कर सकते हैं, और उन नकारात्मक अनुभवों से भी कुछ हासिल कर सकते हैं। महज उन घटनाओं पर ही सोचते रहने की बजाय आप सोच सकते हैं, कि उन घटनाओं ने आपके कैसे ज्यादा बुद्धिमान और बेहतर बना दिया है।
आप दरअसल गुजरे हुए वक्त में आपको नुकसान पहुंचाने वाले लोगों से शुक्रगुजार हो सकते हैं। कि उन्होंने आपको आज कितना सशक्त बना दिया है। और किसी भी परिस्थिति में ऐसा किसी अन्य तरीके से संभव नहीं था।
आपके माता-पिता को बच्चे पालने का कोई पूर्व अनुभव नहीं था। इसके अलावा उनकी जानकारी उनके खुद के पालन पोषण की प्रक्रिया तक ही सीमित थी। हर इंसान की तरह एक माता पिता की जिम्मेदारी जब उनको मिली तो उनमें उनकी निजी समस्याएं और कमजोरियां भी छिपी हुई थी।
जैसा कि आज आपके साथ हो रहा है, फिर भी उन्होंने उनके पास जो था उसके लिहाज से अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया। वे जैसे भी थे उन्होंने आपका इस तरह से पालन पोषण किया जैसा कि वे कर सकते थे।
ऐसे में ऐसी किसी भी बात को लेकर नाखुश होने की कोई जरूरत नहीं है, जो उन्होंने नहीं किया। शायद उसको करने के बे काबिल ही नहीं थे, उसे भूल जाओ और अपनी जिंदगी को आगे बढ़ाओ।
निजी प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाएं।
मनोवैज्ञानिक के अनुसार नकारात्मक भावनाओं का दूसरा बड़ा कारण है, पहचान या लगाव। यह तब होता है जब आप किसी बात को निजी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं। या फिर आप किसी व्यक्ति या बात से जुड़ जाते हैं।
आप किसी भी घटना या परिस्थिति के परिणाम को अपने ही नजरिए से देखते हैं, या फिर उसे खुद पर या अपनी किसी मान्यता या बेहद पसंद आने वाली बात पर सीधा प्रहार मान लेते हैं।
बुद्ध और ईसा मसीह, जैसे महान आध्यात्मिक गुरुओं ने किसी भी घटना से खुद को भावनात्मक रूप से अलग कर लेने की बात कही है। ताकि आप अपनी शांति और मानसिक स्थिरता को बरकरार रखें।
हार्वर्ड के मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक “विलियम जेम्स” ने लिखा है, किसी भी परेशानी का सामना करने के लिए पहला कदम यही है कि आप उसे उसी रूप से स्वीकारें।
उन्होंने लोगों को यह कहने के लिए प्रोत्साहित किया, की जिसका कोई इलाज ना हो उसका सामना करना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो हर उस हर घटना या व्यक्ति से खुद को अलग रखने की आदत डाल लें जो आपको नाराज या विचलित कर देती हो। उससे भावनात्मक ऊर्जा को हटा लीजिए ताकि आप अपनी शांति और मानसिक स्थिरता को दोबारा हासिल कर सकें।
इस राह को अपनाने का यह मतलब कतई नहीं है, कि जो कुछ भी हो आप उसे स्वीकार लें। बल्कि यह तो आपको अपनी भावनाओं और दिमाग पर नियंत्रण करने के लिए इच्छा शक्ति को बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करता है।
किसी भी समस्या के वक्त आप खुद को दिमागी तौर पर शांत रखकर उसे समझदारी से सुलझाने के लिए तैयार कर लेते हैं। आप अपने दिमाग का इस्तेमाल परिस्थिति को समझने और बेहतर तरीके से फैसले लेकर उसे सुलझाने के लिए करने लगते हैं।
आप पर तब तक कोई भी अपना नियंत्रण स्थापित नहीं कर सकता जब तक की आप उनसे कुछ पाने की अपेक्षा नहीं रखते। उनके पास जरूर ऐसी कोई बात होती है जिसे वह आपको अभी भी दे सकते हैं। या आपको उससे वंचित कर सकते हैं।
जिस वक्त आप खुद को किसी व्यक्ति या वस्तु से भावनात्मक तौर पर अलग कर लेते हैं। उससे कोई अपेक्षा नहीं रखते आप आजाद हो जाते हैं।
किसी भी बात से खुद को अलग कर लेने की इस शक्ति को आप अभ्यास के जरिए हासिल कर सकते हैं। यह आपको हर उस परिस्थिति पर नियंत्रण दिला देगा जिससे पहले आप विचलित या नाराज हो जाते थे।
किसी भी समस्या के वक्त निर्विकार रहकर वस्तु की परख सीखकर आप दूसरों की सबसे ज्यादा मदद कर सकते हैं। उन्हें हर समस्या को इसी नजरिया से देखने के लिए प्रोत्साहित करें मानो यह किसी दूसरे के साथ हो रहा हो।
उनसे पूछिए कि अगर कोई दूसरा व्यक्ति ऐसी मुसीबत में फंसा होता तो आप उसको क्या सलाह देते। भावनात्मक तौर पर बेहद नाजुक स्थिति में खुद को अलग रखकर आप और अन्य लोग उससे ज्यादा कारगर तरीके से निपट सकते हैं।
अन्य लोगों की सोच।
ओस्पेनस्की के अनुसार भावनाओं का तीसरा बड़ा कारण है, संकुचित सोच। ऐसा तब होता है जब आप अपने प्रति लोगों के व्यवहार को लेकर कुछ ज्यादा ही चिंतित हो जाते हैं। अगर आप ऐसा सोच लेते हैं, कि कोई आपको उतना सम्मान नहीं दे रहा है, जितना कि आपके हिसाब से उसे आपको देना चाहिए।
तो आप अपमान या गुस्से का एहसास कर सकते हैं और कुछ बोलना चाहते हैं। अगर लोगों का आपके प्रति व्यवहार रूखा या पूर्वाग्रह से ग्रसित है। तो आप अपने व्यवहार को अपने व्यक्तित्व और चरित्र पर हमले की तरह लेते हैं। उनके रवैये और व्यवहार का ऐसा आकलन आपको नाराज या हताश कर सकता है।
मनोवैज्ञानिकों का कहना है, कि हम जो कुछ भी करते हैं। वह या तो अपनी निधि पहचान और आत्मसम्मान की खातिर करते हैं। या फिर दूसरे लोगों या परिस्थितियों के हाथों खत्म होने से बचने के लिए।
अगर आपकी निजी अवधारणा उतनी ऊंची नहीं है, जितनी कि यह हो सकती है। तो आप दूसरे लोगों के कार्यों या फिर आप उनकी प्रतिक्रिया को लेकर काफी संवेदनशील रहेंगे।
आप हर बात को इस तरह अपने पर ले लेंगे मानो उन्होंने जो कुछ भी किया या कहा है। वह जानबूझकर आपको ही निशाना बनाकर कहा गया है। जबकि अधिकांश मामलों में बात कुछ और ही होती है।
यह हकीकत है कि अधिकांश लोग खुद में या अपनी समस्या में ही उलझे हुए हैं। लगभग 99 फ़ीसदी वक्त तो लोग अपने बारे में ही सोच में डूबे रहते हैं। अपनी भावनात्मक ऊर्जा का बाकी का एक फ़ीसदी वे आपके सहित बाकी दुनिया को देते हैं।
ट्रैफिक में आपका रास्ता काटने वाला अपने ही विचारों में उलझा हुआ होता है। वह तो आपके अस्तित्व के बारे में भी नहीं जानता, ऐसे में उसके किसी बेवकूफी भरे काम के लिए आपका नाराज या विचलित होना बेवकूफी ही होगा।
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